City Palace Balrampur
Dedicated to
Hon. Dharmendra Parsad
Singh
Maharaja Of Balrampur
As a tribute of respect for his laudable
efforts as a patron of Historical literature, of reverence for his patriotic
zeal in encouraging the spread of historical awareness of the ta ‘alluqdars of Oudh in this country,
who inspired us to undertake this humble
effort to bring this interesting subject which was left untouched since the
then Resident of Lucknow Col WH Sleeman wrote his Journey of Oudh 1849-50 and a
Short Memoir of the taluqdars of Oudh
written by Daroga Wazid Ali in 1880.
Pawan
Bakhshi
1st
January 2011
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बलरामपुर राज
भविष्य पुराण (पृष्ठ 326) के अनुसार वयहानि (चपहानि) नाम के एक राजा ने मध्य देश में अपना आधिपत्य स्थापित किया। बाद में यह स्थान अजमेर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वयहानि ने दस वर्ष तक राज्य किया। उसका पुत्र तोमर हुआ। तोमर का वर्चस्व इन्द्रपं्रस्थ पर भी था। तोमर से उत्पन्न पुत्र पौत्र तोमर वंशी कहलाए। इसी वंश की एक शाख में मनसुख देव हुए। उन्होंने पावागढ़ (गुजरात) पर अपना आध्पित्य स्थापित किया। पावागढ़ के चन्द्रवंशी (तोमर) शासक मनसुख देव की छः सन्तानों में सबसे छोटे बरियार शाह थे। सत्ता के संघर्ष के सिलसिले में पावागढ़ के राजकुमार बरियार शाह 1260 ई0 में कैद कर लिए गये। इनके विरूद्ध कुछ अमीरों, सूबेदारों का आरोप था कि ये ‘‘मेव’’ लोगों के हमदर्द और सहयागी हैं। मेव लोग पावागढ़ और दिल्ली के मध्यवर्ती क्षेत्र में आबाद थे तथा दिल्ली के सुल्तानों के विरूद्ध मेवाती संघर्षरत थे। सन् 1266-67 ई0 में नासिरूद्दीन महमूद की मृत्यु के पश्चात जब बलबन सुल्तान बना तो उसने बहराइच के तत्कालीन सूबेदार मलिक ताजुद्दीन गोरी की सिफारिश पर बरियार शाह को रिहा करके बहराइच में लूटपाट द्वारा आंतक मचाने वाले कबीलों का दमन करने का दुश्कर कार्य सौंपा। सुल्तान बनने के पूर्व नायब बलबन (उलूग खाँ) बहराइच क्षेत्र में उत्पातियों का दमन करने के उद्देश्य से दो बार पहले 8 जनवरी 1257 ई0 को तत्पश्चात अप्रैल 1257 ई0 में अभियान पर जा चुका था किन्तु उसे असफलता ही हाथ लगी थी। अतः उसने यह चुनौती भरा कार्य बरियार शाह को सौंपा। तद्नुसार सुल्तान गयासुद्दीन बलबन से आज्ञा पत्र प्राप्त कर राजा बरियार शाह ने बनजारों का दमन किया एवं शान्ति स्थापित करने के बाद उनकी इस सफलता पर प्रसन्न होकर सुलतान ने उन्हें फरमान द्वारा राजा की उपाधि तथा यह इलाका प्रदान किया। इस प्रकार सम्वत् 1325 विक्रमी अर्थात 1268 ई0 में गुजरात के जनवाड़ा (अर्जुनायनो का अपभ्रंश-अर्जुनवाड़ा-जनवाड़ा) क्षेत्र से आए राजपूत बरियार शाह द्वारा इकौना में राज्य स्थापित किया गया। जनवाड़ा से आने के कारण यह वंश जनवार वंश कहलाया। अकौना में अपनी राजधानी स्थापित करने से पूर्व बरियार शाह धरसवां ग्राम में सबसे पहले आकर आबाद हुए थे जो बहराइच-बलरामपुर मार्ग पर स्थित है।
इकौना में (जिसका प्राचीन नाम खानपुर महादेव था) बरियार शाह दुर्ग बनाकर राज प्रबन्ध करने लगे। उन्होंने 1269 से 1305 ई0 तक राज किया उसके पश्चात उनके पुत्र राजा अचल देव उत्तराधिकारी हुए। इन्होंने 1305-1321 तक राज किया। 16 वर्ष तक राज करने के बाद वे स्वर्गवासी हुए। सन् 1321 तक उनके पुत्र राजा धीरशाह ने राजकाज संभाला। सन् 1363 से 1388 ई0 तक आपके पुत्र राजा राम शाह उत्तराधिकारी रहे। उसके पश्चात इनके पुत्र राजा विष्णु शाह ने सन् 1388 से 1404 ई0 तक राज प्रबन्ध किया। सन् 1404 से 1439 ई0 तक इनके पुत्र राजा गंगा सिंह ने गद्दी संभाली और राज काज के कार्य सम्पन्न किए। राजा गंगा सिंह का वास्तविक नाम लक्ष्मी नारायण शाह था। इस राजवंश में राजा गंगा सिंह के बारे में एक किवंदन्ती प्रचलित है। कहते हैं कि एक बार राजा गंगा सिंह बाहर कहीं से लौट कर घर में प्रवेश कर रहे थे। भीतर पहुंचते ही उन्होंने देखा कि उनकी पत्नी अपने देवर से बात कर रहीं थीं। उन्होंने बातों बातों में राज मुकुट अपने देवर को पहना दिया। यह देखकर राजा साहब ने कहा कि - रानी यह तुमने क्या कर दिया। मुकुट तो राजा के सर पर ही रहता है। उन्होंने उसी समय राज त्याग दिया और वैराग्य धारण करके निकट ही धुसाह ग्राम में जा बसे। राजा गंगा सिंह को लोग गंगा बाबा कहकर पुकारने लगे। कालान्तर में अपभ्रंश होकर वे गंजे बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए।
उनकी मृत्यु हो जाने पर उनके ज्येष्ठ पुत्र राजा माधव सिंह गद्दी पर बैठे। इनके समय में इकौना राज की पूर्वी सीमा पर स्थित रामगढ़ गौरी परगने के तत्कालीन भू-स्वामी खेमू चैधरी का वर्चस्व था। यह अपनी चैधर इकौना राज में जमा करते थे। विगत कई वर्षों से चैधर (कर) अदा न करने के कारण इकौना के राजा माधव सिंह ने खेमू चैधरी पर चढ़ाई कर दी। खेमू चैधरी की सहायतार्थ वल्लभ बढ़ई भी आ गया। खेमू चैधरी और बल्लभ बढ़ई से हुए संघर्ष में इन्हीं माधव सिंह के द्वितीय पुत्र बलराम शाह अल्पायु में ही मारे गए थे। राजा माधव सिंह ने काफी संघर्ष के बाद बल्लभ बढ़ई को पराजित करके उनका राज्य अपने अधीन कर लिया। वर्तमान खंमौआ ग्राम में खेमू चैधरी की गढ़ी के ध्वंशावशेष अब तक विद्यमान है। राजा माधव सिंह अपने इस विजित प्रदेश में शासन व्यवस्था सुदृढ़ करने के उद्देश्य से अपने छोटे भाई गणेश सिंह को अकौना राज का प्रबन्ध सौंप कर स्वयं रामगढ़ गौरी आ बसे। इन्होंने 1439 से 1480 ई0 तक रामगढ़ गौरी पर शासन किया।
राजा माधव सिंह ने अपने स्वर्गीय पुत्र बलराम शाह की स्मृति को चिरस्थायी बनाए रखने के लिए उनके नाम पर बलरामपुर नगर की स्थापना की। तब से रामगढ़ गौरी के स्थान पर बलरामपुर ही जनवार वंश के राज्य का प्रभावशाली राजनीतिक केन्द्र बन गया। सन् 1480 में राजा माधव शाह के मृत्युपरान्त उनके पुत्र राजा कल्याणशाह गद्दी पर बैठे । (1480-1500 ई0) सन् 1500 से 1546 ई0 तक इनके पुत्र राजा प्राण चन्द्र ने बलरामपुर पर शासन किया। इनकी मृत्यु के बाद 1546 से 1600 ई0 तक राजा तेज शाह ने तथा सन् 1600 से 1645 तक राजा हरिवंश सिंह ने राज किया।
हरिवंश सिंह अपने समय के कुशल यौद्धा और बहुत वीर राजा हुए। इनके शासन काल के समय की एक घटना ‘बलरामपुर दरबार का हिन्दी काव्य’ में पढ़ने को मिली। पुस्तक के अनुसार हरिवंश सिंह के तप्त शासनकाल में एक बार जल्हौरी के चैहान राजा चतुर्भुज दास ने दिल्लीश्वर शाहजहाँ का हुकुम पाकर धौरहरा के राजा को दबाने का प्रयास किया। चतुर्भुज दास राजा का पीछा करते हुए बलरामपुर आए और राप्ती के तट पर पड़ाव डालकर उसे पकड़ने की बात की। इसी पर हरिवंश सिंह के पाँच पुत्रों में सबसे बढ़े छत्र सिंह ने चतुर्भुजदास को घेर लिया। चतुर्भुजदास ने सन्धि का प्रस्ताव रखा और डर कर वहाँ से भाग गया। वापस जाकर चतुर्भुजदास ने दिल्लीश्वर से बलरामपुर नरेश की शिकायत की। सुल्तान ने अवध के नवाब को इस समस्या के निदान लिए पत्र लिखा। फलतः सैयदवादी नवाब ने बलरामपुर पर चढ़ाई कर दी। भयंकर युद्ध की प्रस्तावना रची गई। बलरामपुर की धरती पर पठानों एवं जनवार क्षत्रियों के बीच तोपें दग उठीं। इस युद्ध में क्षत्रियों की विजय हुई। विरोधी पराजित होकर हो हल्ला करते भाग गए। इस घटना से राजा साहब के मन में अवध के नवाबों के प्रति वैमन्स्यता की खाई उत्पन्न हो गई।
राजा हरिवंश सिंह के पाँच पुत्र थे। उनकी मृत्यु हो जाने पर ज्येष्ठ पुत्र छत्र सिंह राजा हुए। उन्होंने सन् 1645 से 1695 ई0 तक राज किया। उनके तीन पुत्र हुए- फतेह सिंह, इज्जत सिंह और राजा नारायण सिंह। फतेह सिंह के तीन पुत्र अनूप सिंह ,रूप सिंह और पहाड़ सिंह हुए। पहाड़ सिंह के पाँच पुत्र-ककुलति सिंह, सांवल सिंह (निसन्तान), जसवन्त सिंह (निसन्तान), राम सिंह (निसन्तान) और दलेल सिंह (निसन्तान) हुए। राजा नारायण सिंह की कोई औलाद न होने के कारण वे पहाड़ सिंह के पौत्र (ककुलति सिंह के पुत्र अनूप सिंह) को अपने पुत्र की तरह मानते थे। अनूप सिंह का उŸाराधिकारी बनना लगभग तय ही था कि राजा नारायण सिंह के यहाँ पृथ्वीपाल सिंह का जनम हो गया। पिता के निधन के बाद राजा पृथ्वीपाल सिंह गद्दी नशीन हुए।
अवध गजेटियर लिखता है कि घाघरा पार के रैकवार स्वतन्त्र थे या नहीं इसका स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता, पर सन् 1751 में रैकवार घराना मुस्लिम सरकार की जड़े हिला देने के लिए हिन्दुओं के प्रमुख अगुवा थे। सफदर जंग दिल्ली गए हुए थे। उनके नायक नवल राए तीन वर्ष पूर्व फर्रूखाबाद के अफगान बंगशों के द्वारा काली नदी के किनारे युद्ध में हार गए अथवा मार डाले गए थे। कुछ विशिष्ट स्थानों को छोड़ कर बंगश पूरे प्रान्त में फैले हुए थे। 1749 में सफदर जंग ने स्वयं 60,000 की सेना लेकर बंगशों को पराजित किया। रामनगर धमेड़ी के राजा अनूप सिंह के नेतृत्व में निकटवर्ती क्षत्रिय राजा एकत्रित हुए जिसमें गोण्डा के बिसेन, बलरामपुर के जनवार तथा बहुत से अन्य क्षत्रियों ने लखनऊ पर धावा बोलने के लिए अपनी सेनाएं एकत्रित कीं। लखनऊ के शेखजादे दुश्मनों से मिलने बाहर आए। वे महमूदाबाद और बिलहरा के शेखजादों से मिल चुके थे। बल्कि उनके बीच वैवाहिक सम्बन्ध भी बन चुके थे। वे युद्ध का सामना करने जा डटे। ये युद्ध कल्याणी नदी स्थित चिउलहा घाट पर लखनऊ जाने वाले मार्ग पर हुआ था। मुसलमानों की ओर से मुइज्जुद्दीन खान उनका नेतृत्व कर रहे थे और हिन्दुओं की ओर से रामनगर धमेड़ी के राजा अनूप ंिसंह नेतृत्व कर रहे थे।
इस युद्ध में मुसलमान विजयी रहे। बलरामपुर के जनवार युवराज इस युद्ध में मारे गए। उल्लेखनीय है कि बलरामपुर राजघराने की वंशावली में इनका नाम नहीं मिलता। वर्तमान महाराजा साहब बलरामपुर श्री धर्मेंन्द्र प्रसाद सिंह जी ने अपने खानदानीे दसौंधी के माध्यम से जब वंशावली का मिलान कराया तो उसमें रूप सिंह का नाम पाया गया जिनका निधन 1751 ई0 में होना भी पाया गया। उल्लेखनीय है कि रूप सिंह को गलती से राजा लिख दिया है। सम्भवताः वे युवराज रहे होंगे। उनकी मृत्यु का कारण भी बाराबंकी में हुए युद्ध में होना दर्ज़ है। गजेटियर भी इसकी पुष्टि करता है। इस युद्ध में दोनों ओर के लगभग 15,000 लोग मारे गए थे। इस युद्ध में मुसलमानों की विजय से हिन्दु राजघरानों में वैमन्स्य की भावना पैठ कर गई। इन लोगों ने कभी भी लखनऊ की अधीनता स्वीकार नहीं की जिसके कारण ये सदैव उनकी आँख की किरकिरी बने रहे। मैन्युअल आॅफ टाइटिल भी इस घटना की पुष्टि करती है। यही वैमन्स्यता पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हुए महाराजा दिग्वििजय सिंह तक बनी रही जिसके फलस्वरूप उन्होंने लखनऊ की नवाबी सरकार का विरोध करते हुए अंग्रेजों का साथ दिया।
राजा पृथ्वीपाल सिंह ने सन् 1751 से 1781 ई0 तक राज किया। राजा पृथ्वीपाल सिंह के निधन के बाद (निसन्तान होने के कारण) गद्दी के लिए भाई भतीजों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। अनूप सिंह के पुत्र ककुलति सिंह के पुत्र नवल सिंह ने गद्दी हथिया ली और राजा हुए। इन्हें गद्दी पर बैठे अभी कुछ ही दिन हुए थे कि कलवारी के भैया (जो स्वयं गद्दी के दावेदार थे) ने नवल सिंह को भगा दिया। नवल सिंह ने निकटवर्ती नेपाल स्थित दाँग के चैहान राजा (संयोगवश उनका नाम भी नवल सिंह था) के पास पनाह ली। दाँग के राजा नवल सिंह ने अपनी दो हजार थारू सेना के साथ ले कर बलरामपुर पर चढ़ाई करके जनवार राजा नवल सिंह को उनके खोए राज पर कब्ज़ा दिलाया। राजा नवल सिंह बहुत ही बहादुर और यौद्धा थे। उन्होंने शाही नाजिमों को भी परास्त किया था।
एक समय (लगभग 1794-95) की बात है नेपाल की सीमा पर शिकार खेलते हुए राजा नवल सिंह की भेंट चैहान वंश के दाँग (नेपाल) के उन नवल सिंह से हुई जो उनके हितैषी थे तथा उस समय दाँग का राज नेपाल के शाह वंशी राजाओं ने छीन लिया था। इन्ही परिस्थितियों में संयोग की बात थी कि उसी समय अवध के नवाब आसुफुदौला भी शिकार के लिए नेपाल के सीमावर्ती इलाके में आए हुए थे।
1816 की सन्धि के अनुसार अंग्रेजों ने नेपाल के खैरीगढ़ और तुलसीपुर के भूखण्ड को कर्ज़ माफ करने की एवज में अवध को दे दिया था। जनवार राजा नवल सिंह ने अवध के नवाब से आग्रह किया कि इस भूखण्ड को दाँग के राजा को दे दें। जंगलों को काट कर वे इसे आबाद करेंगे जिससे राजस्व में भी लाभ मिलेगा। नवाब को यह सुझाव पसन्द आया अतः उसने बलरामपुर नरेश के अनुरोध पर तुलसीपुर क्षेत्र के कुछ गाँवों का पट्टा तुलसीपुर के राजा नवल सिंह को दे दिया। तुलसीपुर नरेश ने इस उपकार के बदले बलरामपुर नरेश को चैधर (कर) ़देने का वायदा किया, जिसे उनके पुत्र दलेल सिंह ने देना बन्द कर दिया। बलरामपुर नरेश नवल सिंह के पुत्र बहादुर सिंह ने ससैन्य तुलसीपुर के कोट को घेर लिया। दलेल सिंह को झुकना पड़ा। उसने चैधर देना स्वीकार कर लिया। बहादुर सिंह की आयु तुलसीपुर राज से लड़ते लड़ते गुजर गई।
फतेहपुर जनपद के असनी कस्बे के निवासी कवि शिवनाथ बन्दीजन (जो कुछ समय तक राजा अर्जुन सिंह के शासनकाल में बलरामपुर दरबार में रहे थे) ने बहादुर सिंह की वीरता पर ‘रायसा बहादुर सिंह’ नाम से वीर रस प्रधान एक प्रशस्ति काव्य की रचना की थी। इस रचना में कवि ने बहादुर सिंह की वीरता का वृतान्त प्रस्तुत किया है। बहादुर सिंह एक साहसी और एवं वीर राजकुमार थे। तत्कालीन अवध के नाज़िम मोहम्द अली खाँ से अनबन हो जाने के कारण उन्हें संघर्ष करना पड़ा। परिणात्मतः उन्होंने नाज़िम के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। इस युद्ध में नाज़िम मोहम्मद अली खाँ को परास्त कर कुंवर बहादुर सिंह ने उसकी तोपें छीन लीं। नाज़िम मोहम्मद अली खाँ से हुए इस युद्ध में बहादुर सिंह को भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इस घटना ने लखनऊ दरबार से उत्पन्न वैमन्स्यता की भावना को और अधिक बल दिया।
राजा नवल सिंह ने सन् 1781-1817 ई0 राज किया। राजा नवल सिंह के दूसरे पुत्र अर्जुन सिंह सन् 1817 ई0 में अपने बड़े भाई बहादुर सिंह के निधन के बाद तालुके के स्वामी हुए। बलरापुर राजघराने के प्राचीन दस्तावेज राजा अर्जुन सिंह के बारे में बताते हैं कि यदि उनकी कृपा कल्याणकारी थी तो अकृपा विनाशकारी थी। उनके पदों की चाप पाते ही बैरियों की छाती धड़कने लगती थी। वे एक मर्यादावादी शूरमा थे। वे शक्ति के उपासक थे। राजा अर्जुन सिंह साहित्यानुरागी थे। उनके दरबार में मिथिला के कालिदास नामक योगी सिद्ध वाले ताँत्रिक के आने का भी उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त वैयाकरण विद्वान, गायक-गायिका आदि से राजा अर्जुन सिंह का दरबार समलंकृत रहता था। नागरी प्रचारणी सभा काशी की एक रिपोर्ट के अनुसार इनके दरबार में अपने समय के तीन विख्यात कवि रहते थे जिनके नाम क्रमशः कवि गंगा दास, सुमन घन और शिवनाथ बन्दी जन।
कवि शिवनाथ बन्दी जन ने अपने आश्रयदाता के बारे में लिखा है -
है ऐसो बलरामपुर, दाता ज्ञाता लोग।
पूरब दिस बिजलेश्वरी, दूरि करै तन सोग।।
नदी राप्ती को सभर, उŸार दिशा सोहात।
देखे वे पातक कटै, पुन्य अधिक सरसात।
सात कोस पटनेश्वरी, राजे दिशा इसान।।
अवध पचीसों कोस है, दच्छिन को परमान।
तवन सहर में भूप हैं, नवल सिंह जनवार।
तिनके द्वै सुत दानिया, कवि लोगन पर प्यार।।
भाषा कीन्ही जानकर, अर्जुन सिंह के हेतु।
बानी संस्कृत में रही, सच्छ कथा सिरनेत।।
महापात्र शिवनाथ कवि, असनी बसै हमैसा।
सभा सिंह को सुत सही, सेवक चरन महेसा।।
कवि पंडित मदन गोपाल ने ‘अर्जुन विलास’ की रचना की थी।
सन् 1830 में अपने करीबी राजा भिनगा से राजा अर्जुन सिंह का दो बार इनका युद्ध हुआ। सन् 1830 ई0 में कवियों के आश्रयदाता राजा अर्जुन सिंह का निधन हो गया।
इनके बाद राजा जयनारायण सिंह (1830-1836 ई0) ने बलरामपुर राज की बागडोर संभाली। सन् 1836 ई0 में राजा जयनारायण सिंह निसन्तान परलोकगामी हुए तो राज की बागडोर उनके अनुज 17 वर्षीय दिग्विजय सिंह के हाथ में आई।
महाराजा सर दिग्विजय सिंह बहादुर के. सी. एस. आई.
सन् 1817 ई0 में राजा नवल सिंह की मृत्यु हो जाने पर राजा अर्जुन सिंह राज्य के स्वामी हुए। इनके दो पुत्र थे। जयनारायण सिंह तथा दिग्विजय सिंह। दिग्विजय सिंह जी का जन्म अश्विन कृश्ण द्वादशी बुधवार सम्वत् 1876 (सन् 1819 ई0) में हुआ था। राजा अर्जुन सिंह के निधन के बाद जय नारायण सिंह राजा हुए। छः वर्ष तक राज करने के बाद सन् 1836 ई0 में इनका निधन हो गया। इनके कोई सन्तान न थी अतः 17 वर्षीय अनुज दिग्विजय सिंह ने राज्य का कार्यभार संभाला। राजा दिग्विजय सिंह कुशाग्र बुद्धि के धनी व्यक्ति थे। इनके अन्दर अपूर्व साहस, उद्यमशीलता और अवसर को पहचानने तथा उसका सदुपयोग करने की अद्भुत क्षमता थी। वे एक दूरदर्शी, व्यवहार कुशल तथा सूझबूझ के व्यक्ति थे। इनमें अवसर को पहचानने और वातावरण को अनुकूल बनाने की क्षमता बड़ी विलक्षण थी। अवध की सरकार के नाजिमों के षड़यन्त्र से उनका समूचा राज्य हाथ से निकल चुका था परन्तु वह हिम्मत न हारे। अन्ततः सतत् उद्योग और विवेक से प्रदेश के सबसे बड़े राज्य के स्वामी हुए। नायब नल सिंह के आतंक से बलरामपुर का बच्चा-बच्चा काँपता था परन्तु उसे दण्डित करने के लिए ये अकेले निर्भीकतापूर्वक पहंुचे और उसके क्षमा याचना करने (हाथ में आ जाने) पर उसे मुक्त कर दिया। सन् 1857 ई0 की क्रान्ति के समय कभी अंग्रेजों की ओर से भारतीय सैनिकों के विरूद्ध न वे स्वयं लड़े और न अपनी सेना ही भेजी। सŸाावनी क्रान्ति के समय बेगम हजरत महल की संरक्षक्ता में नवाब ब्रिजीस कद्र की सरकार बनी (ज्ञातव्य है कि अवध के वास्तविक बादशाह कलकŸाा में उपस्थित थे तथा इस ताज़पोशी का कोई प्रामाणिक आदेश नहीं था) अतः महाराजा दिग्विजय सिंह ने इस स्वयम्भू सरकार को मान्यता न देते हुए अपने स्थान पर तटस्थ बैठ गए। नवाब बिरजीस कद्र ने बलरामपुर रियासत के विरुद्ध एक फरमान जारी करने का हुक्म देते हुए बलरामपुर राज को उतरौला और तुलसीपुर में समाहित कर देने को कहा। क्रान्ति की ज्वाला तीव्र हो जाने के कारण इस हुक्म की तामील न हो सकी।
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के समय अंग्रेजों का पक्ष लेने की पृष्ठभूमि उनकी नीति पटुता और व्यवहार कुशलता का प्रमाण है । अवध में सशस्त्र क्रान्ति छिड़ने से पूर्व बाराबंकी जिले में बहरामघाट पर गोण्डा, बहराइच, अयोध्या और अमोढ़ा (बस्ती) के राजाओं की बैठक हुई थी, सत्तावनी शूर-चर्दा नरेश जगजीत सिंह के पुत्र राजा शिवराज सिंह और पौत्र कुवंर महाराज सिंह के द्वारा उक्त कान्फ्रेन्स के सम्बन्ध में कहे गए विवरण को अपनी पुस्तक ‘‘गदर के फूल’’ में स्व0 अमृत लाल नागर जी ने अविकल रूप से उद्धृत किया है जो इस प्रकार है -‘‘कान्फ्रेन्स में चहलारी’’ चर्दा, गोण्डा, बलरामपुर, इकौना एकत्र भए रहे। पास भया कि अंग्रेजों से लड़ना तो चाहिए ही परन्तु हममें से किसी एक को अंग्रेज की ओर भी रहना चाहिए जिससे कि अगर हमारी हार हो जाए या समर में खेत रहे तो हमारे बच्चों की परवरिश करने वाला भी कोई रहे। बलरामपुर रियासत उस समय छोटी थी। उनसे अंग्रेजों का पक्ष लेने के लिए कहा गया। हमारे पास एक कागज था जिसमें बाराबंकी जिले की कान्फ्रेन्स का हवाला था । वह दरअसल महाराजा दिग्विजय सिंह के हाथ की चिट्ठी थी कि हम अंग्रेजों की तरफ रहेंगे और जो आप लोग हारे तो आपके बाल बच्चों की परवरिश करेंगे। यह कागज हमने उनके गुप्तचर को दे दिया था। उस कागज के एवज में हमारे गुजारे की रकम भी बढ़ाई गई थी। यह कान्फ्रेन्स कानपुर मस्कर (मसेकर त्र अंग्रेजों का कत्लेआम) के बाद भई रहे। उस कागज को संभवतः नष्ट कर दिया गया क्योंकि उस की भाषा उजागर होने से बलरामपुर राज की तटस्थता की नीति का पर्दाफाश हो जाता। महाराजा दिग्विजय सिंह ने स्वतन्त्रता सेनानियों को धन, अन्न और पनाह देकर अपना क्षत्रिय धर्म निभाया। स्वतन्त्रता संघर्ष में चर्दा के राजा ज्योति सिंह खेत रहे।
महाराजा दिग्विजय सिंह ने उनके परिवार के भरण-पोषण हेतु पचास रूपये मासिक की आर्थिक सहायता देनी प्रारम्भ की जिसका भुगतान आज भी जारी है और इससे उक्त कान्फ्रेंस की बातों की पुष्टि भी होती है। महाराजा दिग्विजय सिंह ने केवल 30 अंग्रेजों की जान बचाने के अतिरिक्त 1857 की क्रान्ति में अंग्रेजों की अन्य किसी प्रकार से कोई सहायता नहीं की थी।
गोरखपुर के कमिश्नर रीड साहब लखनऊ के रेसीडेन्ट कर्नल स्लीमन, बहराइच गोण्डा के कमिश्नर विंगफील्ड और अवध के चीफ कमिश्नर मि0 जैक्शन से महाराजा दिग्विजय सिंह की न केवल मित्रता थी अपितु यह उनके परम विश्वास पात्र और आत्मीय बन चुके थे। उधर अवध के नवाबों से मैत्री पूर्ण सम्बन्ध भी बना लिए थे। वे उदार चेता, उपकारी प्रकृति के समयोजित बुद्धि विवेक वाले कुशल राजनीतिज्ञ थे। शाही सरकार की अधीनता, अंग्रेजो की मित्रता तथा स्वतन्त्रता संग्राम के राजाओं का समान सम्बन्ध इन्होंने बड़ी योग्यता से निभाया। अपनी व्यवहार कुशलता से परस्पर विरोधी पक्षों के साथ उन्होंने इतनी योग्यता पूर्वक सम्बन्ध निभाया कि दोनों के विश्वास पात्र बने रहे। वे महान कूटनीतिज्ञ थे। महाराजा दिग्विजय सिंह शस्त्र और शास्त्र दोनों में निपुण थे। उनकी युवावस्था अपने राज्य की रक्षा के लिए नाजिमों से संघर्ष करते बीती। कभी कमदा कोट तो कभी पटोहा कोट, कभी बांसी तो कभी नेपाल में, कभी गोरखपुर तो कभी प्रयाग में लुकते छिपते राज्य की सुरक्षा के उपाय ढूंढते फिरते। मुट्ठी भर सैनिकों के साथ नाजिमों की विशाल सेना का मुकाबला करना बड़े जीवट का काम था।
महाराजा दिग्विजय सिंह ने पाँच विवाह किए थे। पहला विवाह सुलतानपुर में, दूसरा गोला गोपालपुर, तीसरा विद्यानगर गोण्डा की महारानी इन्द्र कुंवरि से, चैथा महारानी इन्द्र कुंवरि की सगी बहन से तथा पाँचवा विवाह जयपाल कुंवरि से हुआ था। सन् 1851 ई0 में बलरामपुर में चेचक का भयंकर प्रकोप हुआ। राजा-रानी भी उसकी चपेट में आ गए। राजा साहब तो अच्छे हो गए परन्तु रानी साहिबा का निधन हो गया। सन् 1854 ई0 में आपने विशेन वंश की कन्या से पुनः विवाह कर गृहस्थी बसाई।
सन् 1858 में मिस्टर काल्विन कैम्पवेल कमाण्डर इन चीफ और जनरल होप ग्रान्ट ने विशाल सेना के साथ घाघरा पार किया और बहराइच पहंुचे। राजा दिग्विजय सिंह की यहीं पर उनसे भेंट हुई। महाराजा दिग्विजय सिंह द्वारा अंग्रेज स्त्रियों और बच्चों की जान बचाने की जानकारी कैम्पवेल को हुई। उसने तुलसीपुर तथा बांकी का इलाका पुरस्कार स्वरूप में उनके नाम पट्टा कर दिया। कुछ दिनों बाद जब कैम्पवेल बलरामपुर आया तो उसने बांकी के बदले चर्दा का तालुका और दो तोपें इन्हें प्रदान की।
22 सितम्बर 1860 ई0 को वायसराय लार्ड कैनिंग ने लखनऊ में दरबार किया। राजा दिग्विजय सिंह को वायसराय के दाहिनी ओर प्रथम कुर्सी दी गई। तालुकदारी की सनद तथा दीवानी, फौजदारी के अधिकार प्रदान किए। इन्हें सात हजार रूपयों का 16 पारचों का खिलअत जिसमें कलगी, सिपर, दुशाला, कमरबन्द, सरपेंच, दीवाल घड़ी, रूमाल नीमजरी, माला, दूरबीन, दस्तकार चैबी, जामाज़री, शमशीर विलायती घोड़ों से युक्त फिटन गाड़ी, गोशवारा, रूमाल दस्ती और कारचोबी वस्तुएं थीं। अक्टूबर 1861 ई0 में अवध के रजवाड़ों की एक संस्था स्थापित की गई जिसका नाम ‘‘ब्रिटिश इण्डिया एशोसिएशन अवध’’ ( जिसे जिसे स्थानीय भाषा में अन्जुमन ए हिन्द अवध कहा गया है) रखा गया। जिसके प्रथम चुनाव में महाराजा दिग्विजय सिंह अध्यक्ष चुने गए। 30 अक्टूबर 1861 ई0 को केसरबाग बारादरी में इसका प्रथम सम्मेलन हुआ। राजा साहब ने क्षत्रियों में उन दिनों प्रचलित पुत्री हत्या की क्रू्रर प्रथा को समाप्त करने के विषय पर प्रभावशाली भाषण दिया। इनके प्रस्ताव को सर्व सम्मति से स्वीकार किया गया कि इस प्रथा को अपने राज्यों से बहिष्कार किया जायेगा। पुत्री वध कानूनन अपराध माना गया और सामाजिक बहिष्कार करने का ऐतिहासिक निश्चय किया गया ।
कैनिंग कालेज की स्थापना (अक्टूबर 1862 ई0) के अवसर पर महाराजा दिग्विजय सिंह ने शिक्षा के महत्व पर प्रभावशाली भाषण दिया जो अपने ढंग का अनूठा था। 1867 ई0 में तालुकेदारान एशोसिएशन आगरा के दरबार में ‘‘नाइट कमाण्डर आफ द स्टार आॅफ इण्डिया’’ ;ज्ञण्ब्ण्ैण्प्ण्द्ध की उपाधि से उन्हें अलंकृत किया गया। सन् 1877 ई0 में देहली दरबार के अवसर पर महारानी विक्टोरिया की ओर से इन्हे नौ तोपों की सलामी दी गई। यह ऐसा सम्मान था जो इसके पूर्व स्वतन्त्र रियासतों के राजाओं के अलावा अन्य किसी को नहीं मिला था।
युद्धजीवी होते हुए भी वे बुद्धिजीवी थे। सन् सŸाावन की क्रान्ति के पूर्व यदि उनका प्रथम रूप प्रधान रहा तो क्र्रान्ति काल से सफल बुद्धिजीवी के रूप में उन्होंने अमित वैभव और ऐश्वर्य प्राप्त किया। उनका युग अंग्रेज राज्य की स्थापना का काल था। उस समय राजकाज की भाषा उर्दू थी। दरबारों में उर्दू का ही बोलबाला था। उस उर्दू प्रधान युग में महाराजा दिग्विजय सिंह अवध के प्रथम महाराजा थे जिन्होंने हिन्दी को अपने दरबार की भाषा बनाया। उनके राजकाज की भाषा हिन्दी थी। कितनी विलक्षण बात है कि जिसके दरबार में सभी उच्च पदों पर अंग्रेज अफसर रहते आएं हो और जिस कुल में शिक्षा दीक्षा के लिए अंग्रेज ट्यूटर नियुक्ेेेेेत किए जाते रहे हों, और जिसके यहां सदैव दस बीस अंग्रेज परिवार रहते रहे हों, उसके नगर में ही नहीं समूचे राज्य की सीमा के भीतर एक भी चर्च न बन पाया हो। कितनी निष्ठा थी उन्हें अपनी मातृभाषा में, कितनी आस्था थी उन्हे अपनी संस्कृति में इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। महाराज सदैव भारतीय वेशभूषा धारण करते थे, चूड़ीदार पाजामा, शेरवानी और साफ़ा। प्रायः नित्य ही गर्वनर अथवा वायसराय से उनका मिलना जुलना होता था परन्तु वे ‘‘अंगे्रजी ड्रेस’’ के मोह में कभी नहीं पड़े। वे अंग्रेजियत के हिमायती कभी नहीं रहे परन्तु अंग्रेजों के विशिष्ट गुण, कर्मठता और चतुरता को उन्होंने अपने जीवन में उतारा।
वे परम सहृदय और साहित्यानुरागी थे। काव्य मर्मज्ञ होने के साथ स्वयं अच्छे कवि भी थे। उनका उप नाम ‘‘भूप विजय’’ था । उनकी गुण ग्राहकता से आकृष्ट होकर सुदूर प्रदेशों से कवि आने लगे। वे कवियों के आश्रयदाता होने के साथ स्वयं भी कविता करते थे। उनकी लिखी कुछ रचनाओं को गोकुल कवि ने ‘‘नीति रत्नाकर’’ में संकलित किया है।
महाराजा दिग्विजय सिंह जी द्वारा रचित एक दोहा-
मूरख सुत पण्डित जवै नीच जात लहि रूप।
निरधन धन पाए गनै तृण सौं त्रिभुवन भूप।।
देत दान हर लोक हित जो है पुरुष सयान।
जहाँ जाएके धन रहे मन तँह रहे लुभान।
लहि सेवा निज सवारथहिं दानी दान जु देत।
नहीं पावै फल पुन्य की अधम दान यह हेतु।
द्रुतविलम्बित छन्द
हितहु सो निज भेद छिपाइए हितहँू के हित होत हिताइए।
निज हितारथ हेतु बतावई अरिहूं को सवभावहि भावहि।
सवैया
जब लाष दिए कछु लेखे नहीं अब लीष लिए किन सोचिए माकुर।
अब प्रीति पुरातम तोरिए ना मन मोरिए न मत हूँ जे न आतुर।
भनि भूप विजय इति बातन पै न विगार करै जग में चित आतुर।
सब आपने हाथ है आपन पोतिज पाँचोई भी न पचा शोई ठाकुर।
दण्डक
पाँच रंग मल सौ बनायो है दुकान देह धरिके पचीस वस्तु जासो सब काम है।
दश दरवाजे जामें लागे हैं प्रगट गोपतीन कुतवाल के प्रकाश आठों जाम है।
षरो षोट पुन्य पाप परखै करम जहाँ लेत है विचार जे प्रवीन देत राम है।
माया कीव जार जग मन व्यापारी यार लीजिए विचार सौदा नफा राम नाम है।
नोटः यहाँ ष अक्षर को ख के स्थान पर पढ़ा जाना चाहिए। न जाने क्यों आज भी इस क्षेत्र के लोग ष को ख कह कर ही बोलते हैं। अधिकांषतः इस क्षेत्र में लोग आज भी षटकोण का उच्चारण खटकोण से करते है। लेकिन सुषमा को सुखमा नहीं बोलते। इसका उŸार कोई भाषाविद् ही दे सकेगा। (लेखक)
महाराजा दिग्विजय सिंह ने केवल हिन्दी में ही अपना काव्य सृजन किया हो, ऐसा नहीं है। लेखक ने इस राज वंश में उर्दू भाषा की एक पुस्तक देखी जिसमें महाराजा दिग्विजय सिंह जी की उर्दू फारसी मिश्रित उनकी शायरी लिखी हुई है। उर्दू में वे अपना उपनाम ‘भूप विजय’ के स्थान पर ‘राजा’ लिखते थे। उनकी शायरी के कुछ नमूने पेश हैं -
कहता हूँ पेश सूए सनम आ ना आफताब।
क्यूँ इतना हो गया है तू दीवाना आफताब।।
गुलशन में यार होगा गुल शर्मसार होगा।
बुलबुल को ख़ार होगा लुत्फे बहार होगा।।
हम पर गुस्सा ऐ महे ताबां मेहरो वफ़ा है और कहीं।
जाँ के तालिब हम से हो दिल अपना दिया है और कहीं।।
करूँ वस्फ जाके गुलशन में यार गुलरू की अन्जुमन का।
उड़े ऊसै दम चमन से बुलबुल न नाम ले फिर कभी चमन का।।
क्यामत उम्मीदें सहर हो गई।
शब ए हिज़्र उमर ए हिज़र हो गई।।
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6 अप्रैल 1880 ई0 को संखोर नामक स्थान पर शेर के शिकार के अवसर पर इनका हाथी बिगड़ गया। हाथी के भागने से हौदा पेड़ से टकराया। महाराजा के मस्तिष्क में भीषण चोट लगी फिर भी घायल शेर को उन्होंने दूसरी गोली से मार डाला। इस घटना के बाद स्वस्थ होकर उन्होंने दो वर्ष तक राज्य का कार्यभार संभाला। इनके द्वारा सन् 1878 ई0 में लिखा गया वसीयत नामा समाज सुधार के क्षेत्र में उनके उदार हृदय की कहानी कहता है। 15 मार्च 1878 ई0 को महाराजा साहब ने एक वसीयत लिखकर महारानी साहब को गोद लेने का अधिकार दिया। महाराजा दिग्विजय सिंह की। उन्होंने राज्य द्वारा स्थापित व संचालित सार्वजनिक कार्यों के व्यय एवं रखरखाव की व्यवस्था के नियम भी बनाए । 27 मई 1882 ई0 को जलोदर रोग से पीड़ित होकर तीर्थराज प्रयाग में आप परलोकवासी हुए। अवध के दरबार में तालुकेदारों की सूची में पहला नम्बर कपूरथला का और दूसरा स्थान आपका था।
महारानी इन्द्रकुवंरि
महाराजा दिग्विजय सिंह का देहावसान हो जाने पर पुत्र को गोद लिए जाने के कारण मुकदमेंबाजी हुई। वसीयत के अनुसार महारानी को गोद लेने का अधिकार दिया गया था। इसमें स्पष्ट नहीं था कि किन महारानी साहिबा को यह अधिकार दिया गया था। मुकदमा प्रीवी काउन्सिल लन्दन तक गया। जहाँ यह निर्णय हुआ कि गोद लेने का अधिकार बड़ी महारानी को है। छोटी महारानी जयपाल कुंवरि को ढाई लाख रूपए प्रतिवर्ष गुजारे के रूप में बाँध दिए गए। 30 जून 1882 ई0 को बड़ी महारानी इन्द्रकुवंरि ने बलरामपुर राज का कार्य भार ग्रहण किया। महारानी साहिबा ने 8 नवम्बर 1883 ई0 को ज्योनार गाँव के अपने खानदान के ही एक बालक उदित नारायण सिंह को गोद लिया जिनका नाम भगवती प्रसाद सिंह रखा गया। महारानी साहिबा ने अपने राजकाल में मिसेज एनीसन महिला चिकित्सालय की स्थापना की। बलरामपुर-बिजुलीपुर मार्ग पर अनेक पुल बनवाए। बलरामपुर नगर की अधिकांश सड़कें उन्हीं के समय में बनी। 20 जून 1893 ई0 को उनका देहावसान हुआ। महाराजा भगवती प्रसाद सिंह जी की अवयस्कता के कारण महारानी साहिबा रियासत के कार्य देखती थीं। उल्लेखनीय है कि भारत में यह पहला अवसर था कि उन्हें वह समस्त अधिकार प्राप्त थे जो महाराजा अपने जीवन में भोगते थे।
महारानी जयपाल कुवंरि ने भी बलरामपुर राज के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शिक्षा-दीक्षा, धर्म परायणता, गरीबों की रक्षा और उत्थान में उनका सराहनीय योगदान रहा। प्रीवी कांउसिल के निर्णय के अनुसार उन्हें प्रति वर्ष प्राप्त होने वाली धनराशि को वे विद्या-प्रचार, धार्मिक तथा समाज कल्याण के कार्यों में लगाती थीं। उन्होंने महाराजा की स्मृति में ‘‘मनुस्मृति’’ का हिन्दी में पद्यानुवाद करवाया था। उनके प्रयास से नीलबाग की स्मृद्धि एवं ऐश्वर्य की वृद्धि हुई।
महाराजा बहादुर सर भगवती प्रसाद सिंह के0 सी0 आई0 ई0, के0 बी0 ई0
आपका जन्म 19 जुलाई 1879 को ज्योनार ग्राम के ठाकुर गुमान सिंह के घर हुआ। 8 नवम्बर 1883 ई0 को महारानी इन्द्रकुवंरि ने आपको गोद ले लिया। आपने अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत व उर्दू की शिक्षा ग्रहण की। महारानी साहिबा के निधन के पश्चात सोलह वर्ष की आयु में आप रियासत के स्वामी हुए। परन्तु अव्यस्क होने के कारण तालुका कोर्ट आॅफ वार्ड्स की देखभाल में रहा। 19 जुर्लाइे 1900 को आप बालिग हुए और तालुका कोर्ट आॅफ वार्ड्स से मुक्त हुआ। 20 जुलाई 1900 ई0 को आपका राज्याभिषेक हुआ जिसमें एंटोनी लार्ड मैकडानल्ड (लेफ्टीनेन्ट गर्वनर) भी शामिल हुए थे। 3 नवम्बर 1900 को एक दरबार ए आम आयोजित करके सर एंटोनी लार्ड मैकडानल्ड (लेफ्टीनेन्ट गर्वनर) ने आपको मसनद नशीन करके महाराजा की उपाधि प्रदान की। महाराजा साहब का पहला विवाह रामपुर, बलरामपुर की बिसेन वंशीय महारानी देवेन्द्र कुंवरि से सम्पन्न हुआ था। पुत्रोत्पत्ति की निराशा में गौतम गोत्रीय क्षत्रिय (रियासत नगर बस्ती) की महारानी सरताज कुंवरि के साथ हुआ। इनसे एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई किन्तु बाल्यावस्था में ही उसका निधन हो गया। तीसरी पत्नी से एक जनवरी 1914 ई0 को एक पुत्र्र पाटेश्वरी प्रसाद सिंह का जन्म हुआ। तीसरा विवाह बिरलोका राज के भाटी यदुवंशी महारानी लाल कुंवरि से सम्पन्न हुआ था।
एक नवम्बर 1901 ई0 को एनीसन साहब रियासत के एजेन्ट पद से मुक्त हुए और राज का कार्यभार महाराजा साहब ने अपने हाथ में ले लिया। सन् 1903 में ताजपोशी के लिए आप दिल्ली के दरबार में सम्मलित हुए। इस अवसर पर उन्होंने अपनी प्रजा को पचास हजार रुपए क्षमा किए। 29 जून सन् 1906 ई0 में आपको के0 सी0 आई0 ई0 की उपाधि प्राप्त हुई। 4 दिस0 1906 को आप अन्जुमन हिन्द के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। पहली जनवरी 1909 ई0 को आपको ‘महाराजा’ का मौरूसी का खिताब मिला। जून सन् 1916 ई0 में आप के0 बी0 ई0 की उपाधि से विभूषित हुए। आप अपने कार्यकाल में तालुकदारान अंजुमन हिन्द अवध सभा के सभापति, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कोर्ट के सभापति व आजन्म सभासद तथा आगरा व अवध प्रान्त की काउंसिल के सदस्य रहे। 21 अप्रेल 1910 को दोबारा तथा 15 अगस्त 1913 को अन्जुमन हिन्द अवध की आम सभा में तीसरी बार सर्वसम्मति से इस पद के लिए निर्वाचित हुए। चूँकि इसी बीच अन्जुमन के संविधान में यह संशोधन हो गया था कि कोई पदाधिकारी लगातार छः वर्षों से अधिक किसी पद पर नहीं रह सकता, इस लिए 17 फरवरी 1917 को जब चैथी बार अध्यक्ष का निर्वाचन हुआ नियमों के अधीन आपको अलग होना पड़ा। 20 जनवरी 1921 को राजा साहब महमूदाबाद के पश्चात जब अध्यक्ष के चुनाव की समस्या उतपन्न हुई तो आप तीन वर्षों के लिए अन्जुमन के अध्यक्ष निर्वाचित हो गए। आप बड़े दानशील व्यक्तित्व के स्वामी थे। तारीख अन्जुमन हिन्द 1935 पृष्ठ 501 के अनुसार जब से महाराजा साहब गद्दी नशीन हुए हैं तब से पन्द्रह सोलह लाख से अधिक की धनराशि विभिन्न् भवनों के निर्माण में पर व्यय हुई और सड़सठ लाख छियालिस हजार नौ सौ चोदह रुपए सार्वजनिक कार्यों में चन्दे के रूप में दिए। अकाल क समय तकावी वितरित करने, सहायता देने और सहायता के कार्यों में पाँच छः लाख रुपयों से कम व्यय नहीं हुआ। इन्होंने बलरामपुर से सटे बाजार को भगवतीगंज नाम देकर उसे अपने नाम पर आबाद किया।
को हाथियों का खेदा देखने का बड़ा शौक था। सन् 1837 ई0 में हरिद्वार के जंगलों से अपनी देखरेख में 52 हाथी पकड़वाए थे। जिसमें 6 रास्ते में ही मर गए थे। 46 हाथी बलरामपुर तक पहुंचे। इनके समय बलरामपुर फीलखाने में 100 से अधिक हाथी रहते थे। कहते हैं कि जब गोन्डा से बलरामपुर रेल लाइन मार्ग कर तैयार करवाने में महाराजा भगवती प्रसाद सिंह का बहुत बड़ा योगदान था। जब इस मार्ग पर पहली रेल गाड़ी चली तो इन्जन के अगले भाग में विशेष रूप से एक सिंहासन लगाया गया जिस पर बैठ कर महाराजा भगवती प्रसाद सिंह गोन्डा से बलरामपुर आए थे। 2 जून 1920 ई0 को आप इन्फ्लूएन्जा रोग से ग्रस्त हुए। ग्यारह माह तक रोग से जूझते हुए अन्ततः 24 मई सन् 1921 ई0 को आप परलोक वासी हो गए।
महाराजा सर पाटेश्वरी प्रसाद सिंह
महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह का जन्म 2 जनवरी 1914 में हुआ। मेयो प्रिंस कालेज, अजमेर से आपने सीनियर कैम्ब्रिज तक की शिक्षा प्राप्त की। अट्ठारह वर्ष की अवस्था में इनका विवाह नेपाल के प्रधानमंत्री हिज हाइनेस महाराजा सर चन्द्र शमशेरजंग बहादुर राणा जी0 सी0 बी0, जी0 सी0 एम0 जी0, जी0 सी0 एस0 आई0, जी0 सी0 वी0 ओ0, डी0 सी0 एल0 की सुपुत्री महाराजकुमारी राजलक्ष्मी कुमारी देवी के साथ 11 नवम्बर 1932 को काठमाण्डू में सम्पन्न हुआ। 22 मार्च 1937 में वयस्कता प्राप्त कर आपने राज्य का शासन प्रबन्ध समस्त अधिकारों सहित अपने हाथों में लिया और जीवन पर्यन्त सच्चे प्रजापालक की भांति प्रजा की सुख समृद्धि के लिए जनहित के कार्य करते रहे। दया करूणा और सहानुभूति की वे मूर्ति थे। आपने जब राज्य संभाला तो केवल बलरामपुर नगर केवल दो चिकित्सालय थे। ग्रामीण जनता की कठिनाई देखते हुए आपने 21 अस्पताल ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित कराये। कृषि में सुधार लाने के उद्देश्य से आपने 1937 में अपने पूरे राज्य में चकबन्दी शुरू करायी। प्रदेश में चकबन्दी का यह प्रथम सूत्रपात था। प्रजा को अपने महाराजा की न्याय प्रियता पर इतना विश्वास था कि सभी किसानों ने अपनी भूमि का इस्तीफा दे दिया, जिससे कि खेत का स्वामित्व समाप्त कर चकबन्दी की जा सके।
महाराजा की महानता और निर्लोभ का एक प्रसंग उल्लेखनीय है । जमीदारी उन्मूलन का समय था। बलरामपुर राज्य के अन्र्तगत 72,000 हेक्टेयर प्राकृतिक वन 20,000 एकड़ आरोपित वन थे। इसके अतिरिक्त 40,00,000 फुटकर पेड़ थे तत्कालीन डी0एफ0ओ0 ने महाराजा से निवेदन किया कि जमींदारी समाप्त हो रही है। आज्ञा हो तो कुछ पेड़ कटवा कर कुछ धन एकत्रित कर लिया जाए। अधिकारी की बात सुन कर महाराजा साहब ने उत्तर दिया कि ‘‘जब देना ही है तो उजड़ी हुयी फुलवारी क्या दें।’’ यह थी उनकी सदाश्यता धन्य था उनका अलोभ। महाराजा बड़े ही मित्भाषी थे। वे जो कहते थे वह सूक्ति वचन होता था। वे बड़े विवेकी, दूरदर्शी और दानशील थे। महाराजा ने लगभग दस लाख की लागत से हिन्दू विश्वविद्यालय की 9 मील लम्बी चहारदीवारी तथा अपनी माता महारानी देवेन्द्र कुवंरि के नाम पर महारानी देवेन्द्र कंुवरि गोपद द्वार के नाम से मुख्य द्वार का निर्माण कराया। यह महाराजा की दूरदर्शिता थी कि सन् 1951 में उन्होंने एक चेरिटेबल ट्रस्ट की स्थापना करके अपने राज्य के 150 गांव उसमें निहित कर दिए। इस ट्रस्ट के अन्र्तगत छोटे-छोटे ट्रस्ट सम्मिलित हैं जिसमें एम0पी0पी0 कालेज ट्रस्ट, बालिका इन्टर कालेज ट्रस्ट, महारानी देवेन्द्र कुवंरि बालिका विद्यालय ट्रस्ट, महारानी देवेन्द्र कुवंरि धर्मशाला बलरामपुर, धर्मशाला देवी पाटन ट्रस्ट, अनाथालय ट्रस्ट, बलरामपुर महिला चिकित्सालय ट्रस्ट, महाराजा भगवती प्रसाद सिंह स्मारक चिकित्सालय बलरामपुर ट्रस्ट आदि उल्लेखनीय हैं।
आपने 9 जून 1957 ई0 को ‘‘धर्म कार्य निधि’’ नाम से एक अन्य चेरिटेबल ट्रस्ट की स्थापना की। उन्होंने राज्य की लगभग 80 लाख की फुटकर सम्पत्ति इस ट्रस्ट में निहित कर दी। इस निधि से शिक्षा-संस्कृति के उत्थान सम्बन्धी तथा सामाजिक कल्याण विषयक कार्यों के लिए सहायता दी जाती है।
राप्ती के उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र में नलकूप लगाना सम्भव नहीं था। सिंचाई के लिए बाँध बनाकर सरोवर तैयार किए गये। इनमें कोहरगड्डी विशेषरूप से उल्लेखनीय है। 9 मील के घेरे में स्थित इस सरोवर की क्षमता 442 मिलियन घनफिट है तथा इससे 8075 एकड़ भूमि की सिंचाई की जाती है। यह बांध इतने मजबूत बनाये गये हैं कि इनकी बरबस सराहना करनी पड़ती है। सन् 1957-58 में निर्मित गिरगिटही बांध अनुमानित धनराशि का दूना व्यय करने के बाद भी कई बार फट चुके हैं, परन्तु कोहरगड्डी में लगभग आधी शताब्दी बीत जाने पर भी अभी झुर्रियां नहीं पड़ी हैं। गनेशपुर, भगवानपुर बांध भी उल्लेखनीय हैं। आपके राज्य काल में बलरामपुर राज्य ने प्रजा के हित के लिए ऐसे अनेक बहुमुखी विकास कार्य किए जिन्हें अन्य भागों में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा लाने की चेष्टा की जा रही है। सन् 1930-35 के बीच बलरामपुर राज्य में सिंचाई हेतु नलकूपों का जाल बिछा दिया गया जब कि प्रदेश में कहीं नलकूपों का नामोंनिशान न था । अमेरिकी पत्रों से नलकूप विषयक समाचार पढ़कर वहां के विशेषज्ञ इन्जीनियर फ्रेंकलिंग को बलरामपुर बुलाया गया। उसने राज्य का सर्वे करके रिपोर्ट दी जिसके अनुसार 700 नलकूप लगाये गये। सन् 1930-31 में बलरामपुर विद्युत उत्पादन गृह की स्थापना की गई जिससे बलरामपुर, गोण्डा बहराइच को बिजली मिलने लगी। औद्योगिक विकास हेतु सन् 1932 ई0 में बलरामपुर तथा तुलसीपुर में शुगर मिलें कायम की गयीं। इनके 51 प्रतिशत शेयर महाराज के शेष 49 प्रतिशत श्ेायर रियासत के ठेकेदारों एवं अन्य के थे।
सन् 1930 में महात्मा गांधी के आगमन पर महाराजा तथा महारानी ने उन्हें बलरामपुर पधारने के लिए आमंत्रित किया। कुआनों पर जाकर उनकी अगवानी की तथा अपने यूरोपियन गेस्ट हाउस को खद्दर से सजाकर उन्हें ठहराया तथा सत्याग्रह कोष में महाराजा तथा महारानी ने पृथक-पृथक प्रभूत धनराशि अर्पित की। सन् 1937 से 1947 ई0 के बीच उन्होंने सात लाख रूपया कांग्रेस को आन्दोलनों के सहायतार्थ दिए थे इसके अतिरिक्त स्वाधीनता सेनानियों के अनेक संकट-ग्रस्त परिवारों को उन्होंने भरपूर आर्थिक सहायता दी। जमींदारी उन्मूलन से उनके मुख पर कभी विशाद की रेखा तक न उभरी।
महारानी राजलक्ष्मी कुमारी देवी
महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह के निधन के बाद महारानी राजलक्ष्मी कुमारी देवी ने अव्यस्क महाराजा धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह की व्यस्क्ता तक राज का कार्यभार सम्भाला। अपने यशस्वी पिता एवं कुशल प्रशासक हिज हायनेस महाराजा सर चन्द्र शमशेर जंग बहादुर राणा एवं अपने दानवीर पति स्वर्गीय महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह से प्रेरित होकर राज का कार्य बड़ी दक्षता से सम्भाला। अपने अव्यस्क पुत्र महाराजा धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह की देखरेख पूर्ण मातृ वत्स्ला के साथ निभाया। राजमाता राजलक्ष्मी कुमारी देवी के कार्यकाल में उ0प्र0 सरकार द्वारा बिजली उत्पादन की इकाई का निजी हाथों से सरकारी अधिग्रहण कर लिया गया। क्षतिपूर्ति के रूप में प्राप्त धनराशि से विविध व्यवसायिक इकाईयाँ स्थापित की गईं जिसमें बलरामपुर का पहला आधुनिक पेट्रोल पम्प और कोल्ड स्टोरेज विशेष थे। इसके साथ ही मैसी फर्गुसन, फैडेल लायड कूपर इन्जिनीयरिंग की एजेन्सियाँ स्थापित कीं जिससे जमींदारी उन्मूलन के बाद राज की आय में वृद्धि होती रही। 25 अगस्त 1976 को अपने पुत्र धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह के व्यस्क होते ही राज का समस्त कार्य इन्हें सौंप कर स्वयं धार्मिक कार्यों में व्यस्त हो गईं। एक फरवरी 1999 को वे साकेतवासी हुईं।
महाराजा धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह
बलरामपुर के गौरवशाली राजवंश के वर्तमान उत्तराधिकारी महाराजा धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह का जन्म 25 अगस्त 1958 को जनवार वंश के ही गंगवल राजकुल में हुआ। गंगवल रियासत में आपका नाम रघुवंश भूषण सिंह था। बलरामपुर आने पर आपका नया नाम धर्मेंन्द्र प्रसाद सिंह रखा गया। आपके पिता कुवंर भरत सिंह गंगवल रियासत के राजा बजरंग बहादुर सिंह के कनिष्ठ पुत्र हैं। कोसलेन्द्र भरत के सदृश्य सौम्य स्वभाव के शीलवान गृहस्थ सन्त हैं। महाराजा धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह की माता जी मझगवाँ (गोण्डा) के भैया रामपाल सिंह की ज्येष्ठ पुत्री कुंवरानी माण्डवी देवी हैं। बालक धर्मेन्द्र में पिताश्री का पुण्य पुंज साकार हो उठा। बालक धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह की ओर बलरामपुर नरेश की दृष्टि गयी। बड़े धूमधाम और समारोह के बीच महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह और उनकी धर्म परायण महारानी ने 28 फरवरी 1963 ई0 को इन्हें गोद लिया। महाराजा धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह का शुभ विवाह नेपाल के सुप्रतिष्ठित राज्य परिवार में कर्नल ईना शमशेर जंग बहादुर राणा की सुपुत्री महाराजकुमारी वन्दना सिंह के साथ 6 मार्च 1980 को सम्पन्न हुआ। सोने के साथ सुगन्धि के सुयोग से परिजन-पुरजन सभी आह्लादित हो उठे। 29 दिसम्बर 1980 को शुभ मुहूर्त में महारानी के पुत्र-रत्न महाराज कुमार जयेन्द्र प्रताप सिंह का जन्म हुआ। महाराज कुमार मेधावी तथा सौम्य प्रकृति के हैं। 21 अप्रैल 1984 को महारानी से एक कन्या-रत्न महाराजकुमारी विजयश्री ने जन्म पाया। महाराजा धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह जी ने मेयो कालेज, अजमेर से सीनियर कैम्ब्रिज की शिक्षा प्राप्त की। 26 अगस्त 1976 को वयस्कता प्राप्ति के साथ आपने विशाल राजवंश का गुरूतर भार ग्रहण किया। रियासत उस समय अव्यवस्था से गुजर रही थी। महाराजा साहब ने अपनी पूरी दिनचर्या इसे व्यवस्थित करने में लगा दी। रियासत के सभी मुकदमों को भी निपटाया। कई महीनों के अथक परिश्रम के बाद रियासत को व्यवस्थित करके अब अपना अधिकांश समय अध्य्यन में व्यतीत करते हैं। अल्पावस्था में ही आपने जिस सूझबूझ और विवेक का परिचय दिया उसे देख लोग चकित रह गये। किसी माध्यम अथवा सिफारिश के द्वारा रखी गई बात की अपेक्षा वे स्वयं अपनी समस्या सामने रखने का प्रोत्साहन देते हैं। बड़े धैर्य से पूरी बात सुनते तथा सहानुभूति पूर्वक विचार कर समुचित समाधान करते हैं। महाराजा साहब चाटुकारों दलालों से दूर और दुव्र्यसनों से परे हैं। विवेक, आत्मविश्वास, धैर्य, सहानुभूति उदारता और न्यायप्रियता के सदगुणों से उन्होंने लोगों का हृदय जीता है।
महाराजा साहब के गत वर्षों में किए गये कुछ कार्यों के उल्लेख से उनकी साहित्यिक, रचनात्मक और आध्यात्मिक अभिरूचि पर प्रकाश पड़ेगा:-
साहित्यिक अभिरूचि:
1. दिग्विजय पुस्तकालय का पुनर्गठन
2. पाण्डुलिपियों का संरक्षण, संकलन
3. प्राचीन ग्रन्थों का संचयन
4 अवध के तालुकदार हिन्दी के प्रथम ग्रन्थ को संकलित करवाना।
5 बलरामपुर जनपद के इतिहास को दर्शाने वाली पहली पुस्तक ‘सार संकलन बलरामपुर’ को संकलित करवाना।
महाराजा धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह जी ने ऐतिहासिक महत्व की ऐसी पुस्तकों को प्रकाशित करने का विचार करते हुए (जिनपर अभी तक कार्य न हुआ हो) श्री पाटेश्वरी प्रकाशन एवं शोध संस्थान की स्थापना की है। इस संस्थान में ऐतिहासिक महत्व के अन्तर्गत राष्ट्रभाषा हिन्दी में कार्य करने वालों को सम्मानित एवं पुरस्कृत किए जाने का भी प्रावधान है।
अपने पिता श्री महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह द्वारा लगभग दस करोड़ रुपए मूल्य की भूमि भवन दान से इस पिछड़े तराई क्षेत्र में उच्च शिक्षा के प्रसार हेतु स्थापित किये गये ‘‘महारानी लाल कुवंरि स्नातकोत्तर महाविद्यालय’’ के आप आजीवन संस्थापक अध्यक्ष हैं। स्वाध्याय विशेषतः ऐतिहासिक ग्रन्थों का अध्ययन, पुरातात्विक वस्तुओं, कलाकृतियों, ग्रन्थों का संकलन, सांस्कृतिक सम्पदा का संरक्षण फोटो ग्राफी और शिकार उनका सुव्यसन है। तैराकी, बिलियर्ड और बैडमिन्टन उनके प्रिय खेल हैं। बलरामपुर राज से जुड़े लगे लाखों-लाखों लोगों के लिए वे केवल नाम के नहीं अपितु पोषण और संरक्षण के बहुविधि कार्यों द्वारा आज भी सच्चे अर्थों में महाराजा हैं। यही कारण है कि तालुकेदारी समाप्त होने के बाद भी बलरामपुर राजवंश की प्रतिष्ठा के प्रति समूचे जन-मानस में पूर्ववत् आस्था और श्रद्धा विद्यमान है।
स्वास्थ्य ओर शिक्षा के क्षेत्र में बलरामपुर का योगदान अभूतपूर्व रहा है। लखनऊ का बलरामपुर अस्पताल जो कि स्वास्थ्य सेवाओं का मानक रहा है इसी राजवंश का उपहार है। इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए महाराजा धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह जी ने बलरामपुर में अत्याधुनिक उपकरणों एवं सुविधाओं से युक्त एक सौ बिस्तरों के अस्पताल जो कालान्तर में पाँच सौ बिस्तरों वाला अस्पताल होगा, इसका शिलान्यास 7 अक्तूबर 2005 को अपने सिरसिया फार्म पर कर दिया है। इसके लिए वांछित 25 एकड़ भूमि का दान करके महाराजा साहब ने अपने विशाल हृदय का परिचय दिया है। दिल्ली की एक नामी परामर्शदात्री संस्थ, मैन्टक हेल्थ केयर सर्विसेज प्रा0 लि0 कम्पनी ने इस प्रकल्प की पूरी रूपरेखा, नक्शा एवं प्रारूप तैयार किया है। इस अस्पताल में हैलीपैड, धर्मशाला, तरणताल, स्वास्थ्य केन्द्र एवं टेलीमेडिसिन जैसे अत्याधुनिक सुविधा केन्द्र होंगे जो भारत में अन्यत्र कहीं भी दुर्लभ हैं। हृदय एवं मस्तिष्क की बीमारियों के उपचार एवं शल्य हेतु जिसके लिए मरीजों को दिल्ली, मुम्बई जाना पड़ता था वह सभी सुविधाएं अत्यन्त कम मूल्य पर यहाँ उपलब्ध होगीं।
महाराजा धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह जी के इकलौते पुत्र महाराज कुमार जयेन्द्र प्रताप सिंह का जनम 29 दिसम्बर 1980 को हुआ। मेयो कालेज अजमेर से शिक्षा ग्रहण करने के बाद इन्होंने होटल प्रबन्धन की डिग्री प्राप्त की। इस विषय में विशेष दक्षता प्राप्त करने के उद्देश्य से इन्होंने स्विट्जरलेण्ड से एक वर्षीय कोर्स करके विशेष दक्षता प्राप्त की। वर्तमान समय में लखनऊ स्थित बलरामपुर गार्डन, धर्मकार्य निधि सहित रियासत के अन्य कार्यों में अपने पिताश्री के कार्यों में सहयोग कर रहे है। अपने पिताश्री द्वारा खोले गए होटलों - बलरामपुर हाउस नैनीताल, महामाया होटल बलरामपुर का कार्यभार मुक्त रूप से देख रहे हैं। भविष्य में बनकटवा कोठी को भी ‘ईको टूरिज्म’ के लिए विकसित करने की योजना है। इन्होंने पुरानी तहसील तथा माया होटल जो अब महामाया होटल के नाम से जाना जाता है का जीर्णोंद्धार कराया। परिवार के सदस्य इन्हें प्यार से ‘बाबा राजा’ कह कर पुकारते है।
बाबा राजा की एक बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया। उन्होंने मुझे बताया कि मैं जब किसी दूसरे प्रान्त की रियासतों में जाता हँू तो उनकी आपसी बातचीत का माध्यम उनकी स्थानीय भाषा ही होती है। मैंने भी अब सोच लिया है कि अब मैं जब भी बलरामपुर रहूँगा। यहाँ की स्थानीय भाषा ‘अवधी’ ही बोलुंगा। इसके अतिरिक्त यहाँ की स्थानीय वेश भूषा में ही रहूँगा। वास्तव में जिस दिन मेरी उनकी वार्ता हुई थी, उन्होंने कुर्ता-पायजमा ही पहन रखा था तथा बातचीत का माध्यम विशुद्ध ‘अवधी’ ही था।
जनवार राजकुल बलरामपुर का वंश वृक्ष
मझले पाण्डव अर्जुन से 41 वीं पीढ़ी में
राजा नय सुखदेव (पावागढ़ गुजरात)
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राजा बरियार शाह (1269-1305 ई0) छः भाईयों में सबसे छोटे
। धरसहा (इकौना) 1304
राजा अचलदेव (सन् 1305-1321 ई0)
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राजा धीर शाह (सन् 1321-1363 ई0)
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राजा राम शाह (सन् 1363-1388 ई0)
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राजा विश्णु शाह (सन् 1388-1404 ई0)
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राजा गंगा सिंह (सन् 1404-1439 ई0)
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राजा माधव सिंह - राजा गणेश सिंह (इकौना राज)
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(बलरामपुर राज 1439-1480 ई0)
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राजा कल्याण शाह (सन् 1480-1500 ई0) बलराम शाह
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राजा प्राणचन्द (सन् 1500-1546 ई0) मुकुन्द शाह
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राजा तेज शाह (सन् 1546-1600 ई0) भगवत सिंह (बेनीजोत)
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राजा हरिवंश सिंह (सन् 1600-1645 ई0)
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राजा छत्र सिंह (सन् 1645-1695 ई0) बसन्त सिंह
(राजा छत्र सिंह के तीन पुत्र)
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फतेह सिंह इज्जत सिंह राजा नरायन सिंह
(फतेह सिह के तीन पुत्र) (सन् 1695-1737 ई0)
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अनूप सिंह रूप सिंह पहाड़ सिंह
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ककुलति सिह (दो पुत्र बहादुर सिंह और नवल सिंह)
राजा पृथ्वीपाल सिंह (राजा नारायण सिंह के पुत्र)
(सन् 1737-1781 ई0) (निःसन्तान)
राजा नवल सिंह (सन् 1781-1817 ई0)
(ककुलति सिह के पुत्र)
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राजा अर्जुन सिंह (सन् 1817-1830 ई0 (राजा नवल सिंह के दूसरे पुत्र)
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राजा जय नरायन सिंह महाराज दिग्विजय सिंह
(सन् 1830-1836 ई0) (सन् 1836-1882 ई0)
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महारानी इन्द्रकुवंरि
(सन् 1882-1893 ई0)
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महाराजा भगवती प्रसाद सिंह
(सन् 1893-1921 ई0)
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महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह
(सन् 1922-1964 ई0) ै(निःसन्तान)
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महाराजा धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह
(जुलाई 1964 से वर्तमान) गंगवल से गोद लिए गए।
विवाह: महारानी वन्दना सिंह
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महाराज कुमार जयेन्द्र प्रताप सिंह महाराजकुमारी विजयश्री
(जन्म 29 दिसम्बर 1980) (21 अप्रेल 1984)
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बलरामपुर राज का मानक राज प्रबन्ध: (लेख बृजेश सिंह )
भारत में जब राजाओं-महाराजाओं का युग था और अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें भी अपना पंाव फैला रही थीं। तब यदि किसी राज के राजा की मृत्यु हो जाती और इसका उत्तराधिकारी अवयस्क होता था तब उस राज के राज प्रबन्ध का कार्य अंग्रेजी हुकूमत “कोर्ट आॅफ वार्ड्स” के द्वारा उस समय तक देखती थी जब तक कि उस राज का उत्तराधिकारी वयस्कता ग्रहण नहीं कर लेता था। “कोर्ट आॅफ वाडर््स” द्वारा एक विषेश प्रबन्धक नियुक्त किया जाता था जो “कोर्ट आफ वार्ड्स” के नियमों के अन्र्तगत कार्य सम्पादित कराता था।
विषेश प्रबन्धक आकस्मिक, नियुक्त्यिाँ “कोर्ट आफ वार्ड्स” की संस्तुति द्वारा कर सकता था तथा दफ्तरों के लिपिक या अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति कर सकता था और ऐसी नियुक्तियों को एक सौ रूपए तक का मासिक वेतन देने का उसे अधिकार था, अधिक वेतन देने हेतु संस्तुति आवश्यक थी। विशेष प्रबन्धक को सरकारी कर्मचारियों को छोड़कर अन्य कर्मियों को सजा देने का अधिकार प्राप्त था। वह सजा किसी भी दशा में 250 रू0 से अधिक अथवा एक माह का वेतन अथवा एक माह का वेतन अथवा 6 मास के लिए सस्पेण्ड से अधिक की नहीं हो सकती थी।
जंगल विभाग के कर्मियों को दस रू0 माह से अधिक की सजा नहीं हो सकती थी। और वह भी तीन माह तक के लिए। सहायक प्रबन्धकों, मुख्तार, सहायक अभियन्ता तथा रेंजरों को स्थानान्तरित करने का अधिकार भी उन्हें प्राप्त था। सहायक प्रबन्धक को सभी प्रकार के कार्य देखने पड़ते थे। विशेष प्रबन्धक के व्यक्तिगत सहायक (पी0 ए0) को तत्काल इंगलिश कार्यालय, स्थानीय कार्यालय, लाॅ आफिस, कोषागार एवं नजारत का चार्ज अपने अधिकार में लेना हेाता था। विशेष प्रबन्धक की अनुपस्थिति में वह पंाच सौ रूपये तक के बिल वाउचरों पर हस्ताक्षर तथा भुगतान कर सकता था।
नजारत के लिए अलग अधिकारी नियुक्त किया जाता था। जो तहसील, शैक्षिक, स्वास्थ्य एवं दानशील संस्थाओं के साथ-साथ गेस्ट हाउस, डाक बंगला तथा अन्य भवनों की सूचनाएं एकत्रित कर सूचीबद्ध करता था। डाकघर भी इसी कार्यालय के अधीन होता था। राजस्व विभाग का नाम तब “सेटेलमेन्ट रजिस्टर बलरामपुर” था। बलरामपुर राज्य में दो अघीक्षक तैनात थे पहला अधीक्षक बागों, चिड़ियाघर और अस्तबल का दायित्व संभालता था। दूसरा अधीक्षक हाथियों और ऊँटों का दायित्व संभालता था। इन अधीक्षकों पर जानवरों के भोजन एवं उपचार का सम्पूर्ण दायित्व था। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित विभाग स्थापित थे जिनके द्वारा राज्य के अन्य कार्य सम्पादित होते थे।
आज के सरकारी विभागों की तरह उस समय भी बलरामपुर राज में जंगल, सिंचाई, विद्युत, स्वास्थ्य, पी. डबलू, डी, (तब यह इंजीनियर विभाग कहलाता था) राजस्व विभाग जिसमें 17 तहसीलों का पूरा नेटवर्क कार्यरत था तथा कृषि विभाग आदि महत्वपूर्ण विभाग कार्यरत थे। हर कार्य बकायदा सुनियोजित ढंग से सम्पादित होता था। हर कार्य के लिए निश्चित धनराशि आवंटित होती थी। सुनिश्चित बजट के अनुसार ही सभी कार्य सम्पन्न होते थे। यदि किसी वर्ष बजट के अनुसार कार्य नहीं हो पाया तो बकायदा उसकी पूछताछ होती थी।
राजस्व विभाग: बलरामपुर राज्य के 3014 गंावों के राजस्व सम्बन्धी कार्य राजस्व विभाग 17 तहसीलों के द्वारा सम्पन्न कराता था।
बलरामपुर राज की तहसीलें और ग्राम
क्र्रम तहसील हद बस्ती ग्राम छोटे ग्राम कुल ग्राम
1. चरदा 85 201 286
2. बंगला 10 77 87
3. हरिहरपुर 39 98 137
4. गब्बापुर 31 115 146
5. बनकटवा 75 184 259
6. शिवपुरवा 39 84 123
7. मथुरा 32 74 106
8. गिधरैया 57 70 127
9. महाराजगंज 72 201 273
10. पिपरा 71 192 263
11. हजूर 72 275 347
12. पचपेड़वा 136 129 265
13. तुलसीपुर 134 180 314
14. इटियाथोक 87 87
15. बारगैन 86 86
16. रेतवागारा 39 24 63
17. गन्डारा 39 26 65
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कुल 1084 1930 3014
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जंगल: बलरामपुर के तत्कालीन महाराजा बड़े दूरदर्शी एवं महात्वाकंाक्षी व्यक्तित्व के स्वामी थे विदेश की तकनीक को तुरन्त अपनाकर क्षेत्र के विकास के लिए महत्वपूर्ण कार्य करवाने के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे। जंगल में नर्सरी तैयार कर वृक्षारोपण करने की तकनीक भी राजाओं के खानदान से आरम्भ होती है। बनकटवा क्षेत्र में पहले काले शीशम के वृक्ष होते थे जिसकी मंाग देश के सुदूर क्षेत्रों में होती थीं।
विद्युत:
सन् 1930-31 में “राज्य इलेक्ट्रिक कम्पनी” स्थापित हुई जिसमें थर्मल पावर प्लान्ट स्थापित किया गया जिससे बलरामपुर गोण्डा और बहराइच को विद्युत आपूर्ति की जाने लगी। यह थर्मल पावर उत्तर पूर्व रेलवे और सिंचाई कार्य के लिए प्रदेश सरकार को बिजली देता था।
इन्जिनीयरिंग विभाग (पी0डबलू0डी): उस जमाने में यह विभाग इंजीनियरिंग विभाग कहलाता था। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की नौ मील लम्बी चारदीवारी तथा महारानी देवेन्द्र कुंवरि के नाम पर “महारानी देवेन्द्र कुवंरि गोपदद्वार” का निर्माण बलरामपुर राज के इंजीनीयरिंग विभाग की अद्भुत देन है। उस द्वार के निर्माण ने बलरामपुर का नाम आज भी रोशन कर रखा है।
स्वास्थ्य:
लोगों के स्वास्थ्य की दिशा में भी बलरामपुर राज का येागदान कुछ कम नहीं रहा। बलरामपुर राज द्वारा अस्पताल बनाए गए जो आज तक स्टेट की बिल्डिंग में कार्यरत है। उस जमाने में जब अस्पताल बनाये गए तब बलरामपुर राज द्वारा यह भी सोचा गया कि यह बन्द न होने पाए। इसके लिए एम0 पी0 पी0 ‘ट्रस्ट फार आउट पेशंट महारानी इन्द्रकुंवरि महिला चिकित्सालय, प्रसूति एवं बाल कल्याण विभाग तथा एम0 पी0 पी0 ट्रस्ट फार “वाॅ” एक्स-रे डिपार्टमेन्ट बनाए गए। सीतापुर नेत्र चिकित्सालय की नंीव बलरामपुर राज द्वारा ही रखी गई और उसकी पर्याप्त धन से सहायता भी की जाती है। मेडिकल कालेज लखनऊ और प्रदेश की राजधानी लखनऊ में स्थित बलरामपुर अस्पताल आज भी बलरामपुर का नाम ऊंचा किए हुए हैं। वर्ष 1869 में बलरामपुर राज की जमीन एवं 2 लाख रूपये लगाकर महाराजा दिग्विजय सिंह ने इसकी स्थापना की थी। इसका विस्तार सन् 1901 में महाराजा भगवती प्रसाद सिंह ने किया था जिसका वर्तमान में आउटडोर एवं वार्ड्स के रूप में किया जा रहा है। ग्रामीण जनता के लिए 21 अस्पताल ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित कराए गए। आजादी के बाद यही अस्पताल सरकार द्वारा प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के नाम से जाने जाते है।
कृषिः
तब यह विभाग डेयरी विभाग कहलाता था। इसी विभाग के माध्यम से कई माडल फार्म स्थापित किए गए जिसमें महराजगंज (जय प्रभा ग्राम) सिरसिया फार्म तथा तुलसीपुर राजमहल के निकट पैड़ी का फार्म होता था। कृषि को बढ़ावा देने के लिए विदेशों से कृषि वैज्ञानिकों को बुलाया जाता और उनकी तकनीक अपनाई जाती। बलरामपुर से श्री सैयद अली जर्रार जाफरी एवं चन्द्रभान सिंह को उच्च शिक्षा के अध्ययन के लिए लन्दन भेजा गया। वहाँ से लौटकर इन लोगों ने कृषि को बढ़ावा दिया। कृषि उपज को हानि न पहुंचे, महाराजा कृषकों की समस्याओं पर बहुत ध्यान देते थे। एक उदाहरण-बनकटवा के कृषकों ने महाराजा साहब को अवगत कराया कि जंगली जानवर फसल नष्ट कर रहे है। महाराजा साहब ने तत्काल अपने सुपरिन्टेन्डेन्ट को आदेश दिया कि तीन फुट गहरी तथा तीन फुट ऊपर कुल छः फुट की ऊंचाई की खाई बंाधकर उस पर “अइल” की सघन झाड़ी लगाई जाए ताकि जानवर लंाघ न सकें। लगभग 34 मील लम्बी खाई और झाड़ी तैयार हुई जिस पर लाखों रूप्ये व्यय हुए। कृषि में सुधार लाने के उद्देश्य से उन्होंने सन् 1937 में अपने राज्य में चकबन्दी शुरू कराई। प्रदेश में चकबन्दी का यह प्रथम सूत्रपात था।
सिंचाई:
बलरामपुर राज द्वारा जब सन् 1930-31 में थर्मल पावर स्थापित हो गया तो सिंचाई व्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए नलकूपों की स्थापना की जाने लगी। सन् 1930-35 के बीच बलरामपुर राज्य में सिंचाई हेतु नलकूपों को जाल बिछा दिया गया, जबकि प्रदेश के अन्य क्षेत्रों से नलकूपों का कहीं नामोनिशान तक न था। अमेरिकी पत्रों से नलकूपों विषयक समाचार पढ़कर वहाँ के विशेष इंजीनियर फ्रे्रकलिंक को बलरामपुर बुलाया गया। इंजीनियर फ्रे्रंकलिक ने राज्य का सर्वे करके रिपोर्ट दी जिसके अनुसार सात सौ नलकूप लगाए गए। राप्ती के उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र में जहंा नलकूप लगाना सम्भव नहीं था यहंा सिचाई के लिए बंाध बनाकर सरोवर तैयार किए गए। इनमें कोहरगड्डी विषेश रूप से उल्लेखनीय है। नौ मील के घेरे में स्थित इस सरोवर की क्षमता 442 मिलियन घनफिट तथा इससे 8075 एकड़ भूमि की सिंचाई हो सकती है। यह बाँध इतने मजबूत बनाए गये हैं कि बरबस इनकी सराहना करनी पड़ती है। लगभग शताब्दी बीत जाने पर भी अभी इसमें झुर्रियंा नहीं पड़ती है। बाँध की मिट्टी को दबाने के लिए बड़़ी-बड़ी मशीनों के स्थान पर हाथियों का इस्तेमाल किया गया था। चार सौ हाथी इस छोर से उस छोर तक जाते और लौट आते थे, इस प्रकार यह बंाध इतना मजबूत हो गया कि दरार की गुंजाइश भी नही रही। गनेशपुर, भगवानपुर तथा मोतीपुर बसेहवा भी अच्छे कुण्ड है। रेतवागढ़, राजधाट और पिपरा की नहरें भी खुदवाई गई है।
शिक्षा:
बलरामपुर को शिक्षा के क्षेत्र में काशी के बाद जाना जाता था लोग इसे छोटी काशी में कहते थे। बलरामपुर में छात्र छात्राओं के लिए पृथक-पृथक शैक्षिक संस्थानों की स्थापना की गई। यह शेैक्षिक संस्थाएं अबाध गति से चलती रहे इसके लिए महाराजाओं की दूरदर्शिता की दाद देनी पड़ेगी। महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह ट्रस्ट की स्थापना 1951 में की गई। इस मुख्य ट्रस्ट के अधीन 12 छोटे छोटे ट्रस्ट है जिनमें शैक्षिक विकास के लिए एम0 पी0 पी0 ट्रस्ट फार महारानी लाल कुवंरि महाविद्यालय, एम 0 पी0 पी0 ट्रस्ट फार हाईस्कूल (इण्टर) (वर्तमान एम0 पी0 पी0 इण्टर कालेज का नाम पूर्व में लायल कालेजिएट जूनियर हाईस्कूल था।), एम0 पी0 पी0 ट्रस्ट फार गल्र्स जूनियर स्कूल, एम0 पी0 पी0 ट्रस्ट फार देवेन्द्र कुवरि बालिका विद्यालय, एम0 पी0 पी0 ट्रस्ट फार डी0 ए0 वी0 कालेज एवं बलरामपुर ओेैर तुलसीपुर की संस्कृत पाठशालाएं आज भी कार्यरत है। बलरामपुर के छात्र - छात्राओं को उच्च शिक्षा हेतु अन्य नगरों में भी जाना पड़ता था। महाराजा साहब ने उन बाहरी शैक्षिक संस्थानों को मुक्त हस्त से दान दिया जिसमें कैंनिंग कालेज लखनऊ को तीन लाख रूपये, लखनऊ यूनिवर्सिर्टी को चार लाख रूपये, लखनऊ मेडिकल कालेज को तीन लाख रूपये, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी को चार लाख रूपये, लखनऊ मेडिकल कालेज को तीन लाख रूपये, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी को डेढ़ लाख रूपये, मैकडानल्ड छात्रावास प्रयाग को तीस हजार रूपये। बलरामपुर के लायल कालेजिएट स्कूल भवन हेतु साठ हजार रूपये, पुरी संस्कृत कालेज उड़ीसा को तेरह सौ रूपये प्रतिवर्ष के अतिरिक्त काशी विष्वविद्यालय को मुक्त हृदय से दान देकर शैक्षिक संस्थानों की सहायता की है। अपनी करोड़ों की सम्पत्ति “सिटी पैलेस” को डिग्री कालेज बलरामपुर को दान स्वरूप देकर महाराजा बलरामपुर के शैक्षिक विकास हेतु यह एक अनुपम भेंट है। महाराजा बलरामपुर ने लगभग दस लाख रूपये व्यय कर हिन्दू विश्वविद्यालय की नौ मील लम्बी चारदीवारी का निर्माण कराया।
औद्यौगिक विकास:
औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए बलरामपुर स्टेट ने इंग्लैण्ड की एक इंजीनियरिंग कम्पनी (जो चीनी मिलें खड़ी करती थी) “बेक एण्ड सदरलैण्ड कम्पनी” के साथ मिलकर सन् 1932-33 में बलरामपुर और तुलसीपुर में चीनी मिलों की स्थापना की। इनके 51 प्रतिशत का स्वामित्व महाराजा बलरामपुर के तथा शेष 49 प्रतिशत स्थानीय लोगों के थे। इन चीनी मिलों का संचालन वही कम्पनी करती थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कम्पनी ने अपने शेयर बेच दिए। तब समस्या यह हुई कि इसे चलाएगा कौन ? तब महाराजा बलरामपुर ने इन मिलों को उद्योगपतियों के हाथ बेच दिया। उल्लेखनीय है कि जनपद बलरामपुर में उद्योग के नाम पर आज भी यही दोनों चीनी मिलें हैं।
प्राणि उद्यान:
बलरामपुर शहर में स्थित आनन्द बाग (ज्योति टाकीज और कोल्ड स्टोरेज के निकट) का वास्तविक नाम आनन्द बाग जू था। इसमें चीता, हिरन आदि के अलावा बहुत तरह के पशु-पक्षी थे जिन्हें बाद में लखनऊ चिड़ियाघर को दे दिया गया।
धार्मिक एवं सामाजिक उत्थान:
बलरामपुर को शिक्षा के क्षेत्र में यदि छोटी काशी की संज्ञा दी जाती थी तो छोटे-बड़े तमाम मन्दिरों के कारण इसे छोटी अयोध्या भी कहा जाता था। बलरामपुर के राजाओं का जितना ध्यान क्षेत्र के चहँुमुखी विकास का रहता था धार्मिक प्रवृत्ति होने के कारण उतना ही ध्यान समाज सुधार के क्षेत्र में भी रहता था, पूरे अवध में तत्कालीन क्षत्रिय जाति में पुत्री बलि की कुप्रथा प्रचलित थी। बलरामपुर के तत्कालीन महाराजा दिग्विजय सिंह ने इसके विरूद्ध आवाज उठाई और अथक प्रयत्न से इस नृशंसता पूर्ण कुरीति को बन्द कराने में वे सफल हुए। बलरामपुर शिवालयों, मंदिरों एवं जलाशयों का नगर है। शिवालयों के अनन्त शिखर बलरामपुर को अयोध्या एवं मथुरा की तरह तीर्थ का स्वरूप देते है। नील बाग कोठी के पास राधाकृष्ण-मन्दिर और सिटी पैलेस के भीतर का पूजा गृह एवं वहंा का मंदिर गौरव एवं पवित्रता का द्योतक है। तुलसीपुर में देवी का स्थान, बिजलीपुर में बिजलेश्वरी देवी का मन्दिर, बलरामपुर में बड़ा ठाकुरद्वारा आदि अनेक मन्दिर बलरामपुर राजवंश की धार्मिक मनोवृत्ति के द्योतक है। श्रावस्ती के चीन मंदिर को बनवाने में रियासत ने काफी धन लगाया। श्रावस्ती की एक धर्मशाला भी इसी रियासत ने बनवाई थी। गंाधी दर्शन के अध्ययन और प्रचार की व्यवस्था हेतु आर्थिक सहयोग तथा श्रावस्ती आश्रम निधि को बलरामपुर राज द्वारा पंाच सौ बीघे जमीन का दान दिया गया। मोती लाल स्मारक समिति के लिए भवन के लिए महाराजा बलरामपुर ने अपनी पूरी सम्पत्ति लगभग मुफ्त में ही दे दी थी। महाराजा दिग्विजय सिंह ने सन् 1878 ई0 में एक वसीयत नामा लिखा जो उनके उदार हृदय की कहानी कहता है।
बलरामपुर की दानशाला के लिए 2000 रूपये वार्षिक
बलरामपुर स्कूल के लिए 4000 रूपये वार्षिक
नौकरों के वेतन एवं दीन अपाहिजों के लिए 9000 रूपये वार्षिक
बिजलेश्वरी देवी की पूजा स्थान के लिए 10000रूपये वार्षिक
बलरामपुर अस्पताल के लिए 4000 रूपये वार्षिक
गरीब जनवार क्षत्रियों की कन्याओं के विवाह हेतु 5000 रूपये वार्षिक
महारानी जयपाल कुंवरि को प्रिवी कंाउसिल के निर्णय के अनुसार 25000 रूप्ये वार्षिक प्राप्त होते थे जिसे वे विद्या प्रचार, धार्मिक एवं सामाजिक कल्याण के कार्यो में लगातीं थीं। उन्होंने “मनु स्मृति” का हिन्दी अनुवाद महारानी धर्मचन्द्रिका के नाम से कराया था। उन्होंने जयपालेश्वर मन्दिर का निर्माण कराया था। महाराजा भगवती प्रसाद सिंह ने अपने जीवन काल में 60 लाख रूपये सार्वजनिक संस्थाओं को दान में दिए। 9 जून 1957 को महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह ने “धर्म कार्य निधि” नाम से एक अन्य चेरिटेबिल ट्रस्ट की स्थापना की। अपने राज्य की लगभग 80 लाख की फुटकर सम्पत्ति इस ट्रस्ट में निहित कर दी। इस निधि से शिक्षा-संस्कृति के उत्थान सम्बन्धी तथा सामाजिक कल्याण विषयक कार्यो के लिए सहायता दी जाती है।
महाराजा साहब के साथ लेखक पवन बख्शी
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